Saturday, December 17, 2022

एक और घोस्ट विलेज!


हमारे क्षेत्र का शायद ये पहला गाँव होगा जो पूर्ण रूप से पलायन कर चुका है, मुझे ये तो समझ नहीं आता की पूरी तरह से ख़ाली गाँवों को भूतहा गाँव (#Ghost
Village) क्यूँ कहते हैं? लेकिन हाँ शायद हमारे पितृ-पूर्वज, उनके द्वारा बसाये गाँव, जमायी गई कूड़ी-पुंगड़ी (घर-मकान,खेत-खलियान) को हमारे द्वारा वीरान, बंजर कर छोड़ जाने को देखकर रोने ज़रूर आते होंगे।
वीडियो में ये जो आप फोटो देख रहे हैं हालाँकि वो वर्ष 2020 की है, लेकिन तब से अब तक वहाँ की स्थिति और भी ख़राब ही हुई है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड में 40 लाख से ज़्यादा लोग पलायन कर चुके थे और 2.85 लाख घरों में ताले लटके हैं, पलायन की सबसे ज़्यादा मार पौड़ी, अल्मेाड़ा ज़िले पर पड़ी है। उत्तराखंड माइग्रेशन कमीशन का 2018 का एक सर्वे बताता है कि 2011 से 734 गांव आबादी विहीन हुए, जिन्हें घोस्ट विलेज कहा जाने लगा। यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और वहां के घर खंडहर में तब्दील हो गए हैं। दो हजार के लगभग गांव ऐसे हैं, जिनके बंद घरों के दरवाजे पूजा अथवा किसी खास मौके पर ही खुलते हैं। इस सबका का असर खेती पर भी पड़ा है। सरकार भी मानती है कि राज्य गठन से अब तक 70 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है। हालांकि, गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो बंजर कृषि भूमि का रकबा एक लाख हेक्टेयर से अधिक है।
अब जरा सोचिए जो स्थिति 2011 में थीं वो क्या सुधरी होंगी? नहीं बल्कि और भी भयावह हो चुकी हैं। वो भी ऐसे हालात में जब प्रदेश के पास ना कोई ऐसा नेता हो, ना कोई दल जिसका कोई दूरगामी विजन हो, साफ़ नीयत हो? जहां भौगोलिक परिस्थितियाँ, रोज़गार, अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ उत्तराखण्ड में हमेशा से चुनौती पूर्ण रही, उनका राज्य बनने के बाद भी ठीक से कोई समाधान न हो सका हो।
उत्तराखण्ड के पहाड़ों में जहां एक ओर जनसंख्या घट रही है वहीं दूसरी ओर जंगल-झाड़ियाँ, जंगली जानवर बढ़ते ही जा रहे हैं, पहले भी हमारे यहाँ तेंदुआ (बाघ) एक आम बात थी और उनके द्वारा घरेलू जानवरों पर हमले की घटनाएँ आम बात थी, लेकिन उनका कभी इंसानों पर हमले की खबरें नहीं आती थी, पर अब पिछले कुछ सालों से तेंदुओं का इंसानों पर हमलों के कई केस सामने आ चुके हैं, तेंदुओं द्वारा इंसानों पर हमला करने की प्रवृति क्यों बढ़ रही है ये चिंता और चिंतन का विषय है। पहाड़ में आदमखोर तेंदुओं की वृद्धि की वजह मैदानी इलाक़ों के तेंदुओं को पहाड़ी जंगलों में छोड़ा जाना भी कारण माना जा रहा है, इस दृष्टि से भी सत्यता की जाँच वि अध्यनन किया जाना चाहिए और इस समस्या के निराकरण के लिए ठोस कदम उठाये जाने चाहिए।
हम पहाड़ी आख़िर और किन-किन समस्यों से निपटेंगे, अगर कोई खेत कर अपना जीवनयापन करने की सोच भी रहा है तो, खेतों की भौगोलिक विषमता, सिंचाई के लिए पानी, बन्दर, सुवर आदि खेती को नुक़सान का सौदा ही बना रहे हैं।
इस समस्या से निपटने के लिए जितनी राजनीति इच्छा शक्ति की कमी, प्रशासनिक कार्य पद्धति में दोष है, तो उसका का एक और अन्य पक्ष यह भी है कि हम पहाड़ियों की मानसिकता बस नौकरी करने की रह गई है, थोड़ा शारीरिक मेहनत से दूरी रखते हैं। पलायन भी उन ज़िलों में ज़्यादा हुआ है जहां बेहतर शिक्षा या बेहतर शिक्षा के लिए जागरूकता पहले आयी। भी है, पिछले वर्ष मैंने किसी सरकारी आँकड़ों (श्रीनगर में सब्ज़ी बेचने वाले) में पाया था कि 30 से 35 सब्ज़ी बेचने वालों में एक भी पहाड़ी की दुकान नहीं थी।
कोविड माहमारी के बाद कुछ जगह पर घर वापसी हुई है, किंतु यह बेहद कम स्तर पर है, अगर सरकार इन युवाओं का समय रहते साथ न देगी तो कुछ समय में ये भी वापस शहरों की ओर कुछ करने के लिए मजबूर हो जाएँगे।
ऐसा नहीं है कि लोग पहाड़ों में नहीं रहना चाहते हैं, पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन करना उसकी मजबूरी है, हर पहाड़ी युवा बेहतर रोज़गार की चाह में बड़े शहरों में आकर, कुछ पैसे कमाकर वापस पहाड़ों में ही अपने घर जाने का सपना पाले रखता है, शहरों के जनसंख्या घनत्व दबाव के, गला काट प्रतिस्पर्धा के गाँव से आये इन सीधे-साधे पर्वर्तीय लोगों का दम घुटता ही रहता है।
पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन ना तो पहाड़ों के ही हित में है, ना ही शहरों के ही, सारे बड़े शहरों बढ़ती जनसंख्या घनत्व के कारण कराह रहे हैं, शहरों में लोगों को बेहतर जीवन-शैली, रहन सहन, ख़ान-पान, यातायात व्यवस्था के लिए रोज़ जूझना पड़ रहा है।