Friday, March 31, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा : मणिपुर में दूसरा दिन, पीबा ले-लाँगबा (बर बर्टन) और पकोड़ो वाली दावत

 हेइजिंगपोट की रस्म से घर लौट ते वक़्त मेरे मन में एक सवाल घूम रहा था, वो ये कि इतने सारे लोग जो लड़की के घर गए थे वहां तो कुछ खाने को मिला नही तो घर में इन सबका खाना कौन बना रहा होगा ? क्योंकि सुबह से ऐसी कोई व्यवस्था तो दिखी नही, मैंने जिज्ञासा वश पूछ ही  लिया, तो भास्कर दा ने बताया कि यहाँ अन्य राज्यों कि तरह ये सब नही होता लोग अपने घर से खा-पीकर आते हैं और रस्म संपन्न होने के बाद अपने घर वापस चले जाते हैं और जब हम घर पहुंचे तो सभी लोग चाय पीकर अपने-अपने घर लौटने लगते हैं, खैर हम लोग घर के ही मेहमान थे तो हमको अपने भोजन की ज्यादा चिंता नही थी हमारे लिए घर में भोजन तैयार हो रहा था |

आज मुझे पुरी उम्मीद थी कि हमे विशुद्ध मणिपुरी खाना खाने को मिलेगा, लेकिन भोजन बनाते समय हम दो प्राणियों का इतना ध्यान रखा जायेगा ये मुझे पता न था, हम दोनों कितने शुद्ध शाकाहारी हैं ये तो मै नही बताऊंगा लेकिन हाँ भास्कर दा मुझ से ज्यादा शाकाहारी हैं इतना में जरूर कहूँगा लेकिन भोजन के मामले में मै उनसे ज्यादा उदारवादी हूँ, चूँकि भास्कर दा का इस घर में पुराना आना जाना है तो उनकी खाने कि रूचि से घर के सारे लोग परिचित थे, इसलिए भोजन से कुछ दैनिक सामग्री गायब थी जैसे मछली, सामान्यतः मणिपुरी के हर भोजन में सूखी मछली का प्रयोग होता है और यदि घर में किसी कोने में मछली युक्त भोजन बना भी तो वो हमारी थाली से कोसो दूर था, भास्कर दा के लिए मांसाहार केवल पक्षी फल यानि अंडे तक ही सीमित है जोकि पूर्वोत्तर में पूर्वोत्तर के व्यक्ति के प्रति एक रहस्य का विषय भी है |

हमे भोजन के लिए आमंत्रित किया गया, भोजन कक्ष में पहुंचते ही जब मेरी नज़र दो विशिष्ट बड़ी-बड़ी भोजन से परोसी गयी थालियों पर पड़ी तो मै थोडा सकपका गया था, वो इसलिए कि उन दोनों थालियों में भात कि जो मात्रा थी वो मेरे दो दिन के भोजन के लगभग की थी और यदि ये थालियाँ मेरे और भास्कर दा के लिए परोसी गयी है तो फिर तो खा-खा के मर गए आज, लेकिन शुक्र मनाओ कि उन दो थालियों के साथ ही सामान्य आकार कि दो और थालियाँ थी जो हम दोनों के लिए परोसी गयी थी और जो दो बड़ी थालियां थी उनमें चार लोगों के लिए खाना परोसा गया था, मणिपुर में एक बड़ी सी थाली में दो-तीन या चार–पांच लोग एक साथ खाना खाते आराम से देखे जा सकते हैं और जब कोई सामूहिक भोज का आयोजन हो तो ये एक आम बात है | हर संस्कृति में खाना परोसने कि भी अपनी अलग ही कला होती है और खाने कि भी, थाली के बीचों बीच ढेर सारा भात रखा गया था, साथ में एक प्लेट में अलग से कुछ हरे पत्तों से बनी सब्जी थी, दाल थी, आलू कि चटनी थी जिसे बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश में आलू चोखा भी कहा जाता है लेकिन इसे में आलू चटनी कहना ज्यादा उचित सझूंगा क्योंकि यहाँ आलू को सरसों के तेल व खूब सारी लाल मिर्ची के साथ तैयार किया गया था और बहुत ज्यादा तीखा था, मणिपुरी लोग अपने भोजन में लाल मिर्ची का ज्यादा उपयोग करते हैं, भात एकदम शुद्ध जैविक चावलों से बना था जिसकी खुशबु ही गजब कि थी, बिना सूखी मछली के यहाँ के खाने का स्वाद उत्तर भारत से कोई ज्यादा अलग नही लगा मुझे अभी तक जो हमे परोसा गया था उसके आधार पर ही में ये कह रहा हूँ, भोजन से निपटने के बाद मुझे पता चला कि अभी शादी से पहले एक और रस्म बाकि है जो थोड़ी देर में शुरू होगी, जिसको पीबा ले-लाँगबा कहा जाता है, यह रस्म हेइजिंग पोट के ठीक बाद कि रस्म है जो विवाह से पूर्व की जाती है, जिसमे लड़की के घर से कुछ लोग लड़के वालों को विवाह का औपचारिक निमंत्रण देने उसके घर आते हैं | 

रस्म कि तैयारियां पूर्ण हो चुकी थी अब इतजार था तो अतिथियों का, मुझे उम्मीद थी कि शायद लड़की कि फॅमिली से काफी लोग आयेंगे लेकिन वहाँ से केवल एक व्यस्क व्यक्ति एक 5-6 साल के बच्चे के साथ पहुंच थे, बच्चे को देख कर मुझे लगा था कि शायद ये महाशय बच्चे को उसके साथ चलने कि जिद के कारण लेके आए होंगे लेकिन में एकदम गलत था, असल में पीबा ले-लाँगबा कि रस्म में आज उसकी ही अहम् भूमिका थी, इस रस्म में लड़की का छोटा भाई लड़के को अपनी बहन से शादी करने के लिये तय तिथि पर घर आने का औपचारिक निमंत्रण देता है और ये महाशय दुल्हन के छोटे भाई थे | अब वक़्त था रस्म को शुरू करने का, जिस कमरे में रस्म अदा कि जानी थी उसमे बैठने के लिए तीन आसन लगाए गये थे, बिसेश्वर दा (दुल्हा), उनकी माँ और बड़े भाई को उस कमरे में बुलाया गया, कमरे के बीचों बीच जो आसन था उसमे बिसेश्वर दा को बैठाया गया, उनकी दांई ओर उनके तामो यानि बड़े भाई और बाँई ओर उनकी इमा यानि माँ को बिठाया गया, लड़की का भाई केले के पत्तों से बनी छोटी सी कटोरी में कुछ कुंदु यानि चमेली के फूल और तामुल लेकर कर सबसे पहले बिसेश्वर दा (दुल्हे) के पास जाता है, जिसे दुल्हे द्वारा ग्रहण करने का मतलब है कि निमंत्रण को स्वीकार कर लिया गया है, बिसेश्वर दा को भला क्या आपत्ति होनी थी ये तो बस औपचारिकता भर थी शादी कि सारी सेटिंग तो पहले ही हो चुकी थी, उन्होंने भी बच्चे के हाथ से कुछ कुंदु उठाकर अपने कान में खोंस दिया फिर लड़की का भाई उनको तामुल भेंट करता है जिसे वो स्वीकार करके अपने पास रख लेता है, इसके बाद लड़की का भाई बिसेश्वर दा के बड़े भाई व माँ के पास कुंदु व तामुल लेकर जाता है, तीनो का अपने पास तामुल रख लेना का अर्थ है कि सबको तय दिन का निमंत्रण स्वीकार है, वैसे यह केवल औपचारिक रीत है विवाह का दिन दोनों परिवारों कि सहमति से पहले ही तय कर ली जाती है | इस रस्म के आखिर में बिसेश्वर दा के बड़े भाई दुल्हन के भाई को शिष्टाचार के रूप में कुछ पैसे देते है और वो लोग फिर वापस अपने घर लौट जाते हैं | हाँ एक और बात यहाँ भी सारी रस्मों में पंडित कि भूमिका महत्वपूर्ण होती है | 

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अब आज कि सारी रस्मे पूरी हो चुकी थी अतः अब हम घुमने के लिए आज़ाद थे, मै, भास्कर दा इबोमचा भैया के साथ उनकी कार में घुमने निकल गए, घुमने क्या असल में यहाँ का खास पकोड़ा खाने जिसे यहाँ बरा कहते हैं, भैया को जूते पहनने थे तो वो हमको लेकर सबसे पहले अपने घर गए, घर में घुसते ही हमारी नज़र उन महिलाओं पर पड़ी जो हाथ से चलने वाली मशीन पर कुछ बुनने में व्यस्त थी, मै और भास्कर दा सीधे उनके पास जा पहुंचे और भास्कर दा उनसे कुछ पूछने लगे फिर उन्होंने मुझे बताया कि ये लोग एन्नाफी (ennaphi) – महिलाओं द्वारा ऊपर से ओढे जाने वाला वस्त्र बुन रही हैं जिसे तैयार करने में काफी समय लगता है और ये काफी महंगा भी है, इसे महिलाओं द्वारा किसी खास मौके पर ही पहना जाता है |

Women weaver: weaving Ennaphi.  Click here for more images Jewel of India (The Land of Jewels)
जल्दी ही इबोमचा भैया तैयार होकर बाहर आये और फिर हम चल दिये पकोड़ा खाने | पहले हम थोडा घुमे फिर हम उस दुकान पर जाकर रुक गए जहाँ हमको पकोड़ा खाना था, सड़क किनारे लड़की से एक दुकान बनी थी जिसमे दो महिलाएं काम कर रही थी, वो दोनों इस दुकान कि कर्मचारी भी थी और मालकिन भी, जिस हिसाब से दुकान में भीड़ थी और पूरे इम्फाल में जितनी पकोड़े कि दुकान थी उनको देखकर मैंने भास्कर दा से कह ही दिया कि यहाँ के लोग पकोड़े खाने के बड़े शौक़ीन हैं तो वो बोले कि नीरज तुम ये समझो कि यहाँ कि मिठाई पकोड़ा ही है | इबोमचा जी ने मणिपुरी में उन महिलाओं से दो प्लेट पकोड़े तैयार करने को बोला, पकोड़े बनाने कि प्रक्रिया पूरी तरह उत्तर भारतीय थी लेकिन थोडा इंतज़ार करने के बाद जब दो बड़ी गहरी प्लेटों में हमारे लिए पकोड़े परोसे गए तो मुझे उत्तर भारत व मणिपुर में पकोड़े खाने के तरीकों में फर्क महसूस हो रहा था | पूरी प्लेट सूखी मटर के झोल से भरी थी और प्लेट के बीच में पकोड़े रखे थे जिनके ऊपर कटा प्याज़ व कुछ हरे पत्ते थे जो दिखने में हुबहू लहसुन के छोटे पौधे के आकर के थे और खाने में भी कुछ वैंसा ही स्वाद था लेकिन ये लहसुन के पौधे नही थे ये केवल मणिपुर में ही होता है जोकि कि हर्ब्स कि श्रेणी में आता है, उस पत्ते का नाम तो मुझे ज्यादा देर तक याद नही रहा लेकिन हाँ उन पकोड़ों का स्वाद मुझे काफी देर तक ललचाता रहा | पकोड़ों के साथ लाल चाय पीने का मज़ा ही कुछ और था, में और भास्कर दा एक प्लेट पकोड़ों कि हजम कर चुके थे, वैसे भी भास्कर दा पकोड़ों के बड़े शौक़ीन हैं, इबोमचा जी ने दो और प्लेट का आर्डर दिया और इस बार थोडा दूसरे टाइप का पकोड़ा खाने को मिला, दूसरी बार में मेरा पेट भर चूका था, मै अब और खाने की स्थिति में नही था मेरे बार बार मना करने के बावजूद भी इबोमचा जी ने तीसरी बार दो प्लेट का आर्डर दे दिया, लेकिन मै तो अपने हाथ खड़े कर चुका था, इबोमचा बोले तुम्हारा पेट भर गया तो क्या हमारा भी भर गया ? खैर पकोड़ो कि दावत खत्म होने के साथ ही आज का दिन भी खत्म हो चुका था और इबोमचा अब हमे वापस घर छोड़ने जा रहे थे | 

घर पहुंचे तो बिसेश्वर दा ने बोला कि चलो बाज़ार चलते हैं, मै, भास्कर दा, अबुंग, साना और बिसेश्वर दा स्थानीय बाज़ार में कुछ जरूरी सामान खरीदने चले, चलते –चलते जब पकोड़ों कि दावत का सबको पता चला तो सबका मन पकोड़े खाने का हुआ, मुझे बताया गया कि यहाँ के बाज़ार में थोडा अलग तरह का पकोड़ा मिलता है उसे भी खाकर देखो, मै तो पहले ही ओवरलोडेड हो चुका था इसलिए मना कर दिया लेकिन आप लोग खाइए इतना बोलकर में थोडा किनारे हो गया, भास्कर दा और बिसेश्वर दा अकसर इस दुकान पर पकोड़ा खाने आते थे, इसलिए उनकी जुबान पर यहाँ का स्वाद चढ़ा था, जब हम दुकान के अन्दर घुसे तो मुझे यहाँ भी एक महिला मुख्य भूमिका में नज़र आयी जो इस दुकान के मालकिन से लेकर कर्मचारी सब कुछ थी, बाकि सब लोगों ने पकोड़ों का आनंद ले रहे थे और मै मन ही मन सोच रहा था कि भास्कर ने सही कहा था कि पकोड़ा यहाँ कि मिठाई जैसी है जो हर बाज़ार, हर गली में मिल जाएगी.  घर लौट कर हमने अगले दिन कि प्लानिंग बनायीं कि कल हम क्या करेंगे, मुझे और भास्कर दा को कल कल कुछ लोगों से मिलने जाना था, और कल हम पूरा दिन फ्री थे तो आराम से घूम सकते थे, इसलिए हमने अगले दिन सुबह 9 बजे तक घर से निकलने कि योजना बनाकर आज के दिन कि इति श्री की |

जब तक मै तीसरे दिन कि यात्रा लिखता हूँ तक आप मेरी पूर्वोत्तर यात्रा को शुरुआत से 4 भागों में पढ़ सकते हैं 1- पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका, 2- पूर्वोत्तर यात्रा: चल पड़ा पूर्वोत्तर कि ओर 3- एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला हुएन लाल्लोंग’ से परिचय 4- पूर्वोत्तर यात्रा: मणिपुर में पहला दिन, पौना बाज़ार और हेजिंग्पोट की तैयारियां...... को विस्तार से पढ़ सकते हैं |  और यदि आप मेरी मणिपुर यात्रा के दौरान लिए गए अन्य चित्रों को देखना चाहते हैं तो यहाँ Jewel of India (The Land of Jewels) क्लिक करें |



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Tuesday, March 21, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा : मणिपुर में दूसरा दिन व हेइजिंगपोट (Heijingpot) की रस्म

रात को सोने से पहले भास्कर दा ने मुझे बता दिया था कि अगले दिन सुबह 10 बजे के करीब हम लोगो को दुल्हे कि तरफ से दुल्हन के घर हेइजिंगपोट की रस्म (औपचारिक सगाई) में जाना है, इसलिए में सुबह आराम से 8 बजे तक उठा | आज का हमारा पहला एजेंडा था नहाकर तैयार होना, उन दिनों मणिपुर में ठण्ड बहुत ज्यादा तो नही थी लेकिन ठन्डे पानी से नहाया जा सके ऐसा भी नही था और भास्कर दा पहले ही मेरी गरम पानी कि उम्मीदों पर पानी फेर चुके थे, इसलिए मैंने उसके लिए कोई कोशिश भी नही कि और ठन्डे पानी से ही नहा लिया, जिसके बाद हमको जाना था नास्ता करने और हमको नास्ता करवाने जिम्मेदारी दी गयी इबोमचा जी को जोकि हमसे उम्र में काफी बड़े थे लेकिन उनको देख कर कोई भी उनकी उम्र का अंदाज़ा नही लगा सकता था और हम उनको भैया कह कर पुकार रहे थे | उनसे पहले दिन ही मेरी 2 मिनट कि मुलाकात हुई हो चुकी थी इसलिए वो मेरे लिए एकदम नए नही थे, हम उनके साथ पास के बाज़ार में नास्ता करने गए, मुझे लगा कि हमारे लिए नाश्ते कि व्यवस्था बाहर इसलिए कि गयी थी कि शायद इन लोगों ने सोचा होगा कि हम रोटी खाने वाले लोग सुबह चावल वाला मणिपुरी नास्ता पसंद ना करें, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नही था, असल में उन्होंने ऐसा इसलिए किया था कि आज घर के सभी लोग हेइजिंगपोट कि तैयारी में व्यस्त थे और घर में फ़िलहाल खाने को कुछ नही बनने वाला था |

मुझे थोडा आश्चर्य भी हुआ कि आज विवाह कि पहली रस्म है और घर में कोई मेहमान भी नज़र नही आ रहे थे और ना ही खाने-पीने कि कोई व्यवस्था ही, फिर सोचा कि शायद हम कुछ लोग ही आज इस रस्म के लिए जायेंगे और बाकि लोग शायद शादी में जायें | हम जब नास्ता करके वापस घर आ रहे थे तो रास्ते में कुछ पारम्परिक वेश-भूषा में महिलाओं टोली नज़र आयी तो भास्कर दा बोल पड़े शायद ये सब हेइजिंगपोट के लिए तैयार होकर घर कि तरफ ही आ रहे हैं और भास्कर दा का अंदाज़ा सही था, वो सारी महिलाएं उसी घर में आ रही थी, धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी थी और अब मुझे समझ आ गया था कि सगाई में हम कुछ लोग नही बल्कि लगभग 50 -60 लोग जाने वाले हैं |

हेइजिंगपोट (Heijingpot) रस्म कि तैयारियां लगभग पूर्ण हो चुकी थी और अब समय था लड़की के घर के लिए निकलने का, सारी महिलायें घर के सामने बने मंदिर के मंडप में जाकर एक लाइन से खड़ी हो गयी, एकदम ऐसे जैंसे हम स्कूल में प्रार्थना के लिए लाइन बना के खड़े होते थे अनुशासन के साथ, पारंपरिक रीति-रिवाज के अनुसार सबसे आगे एक छोटी लड़की को खड़ा किया गया जिसके सिर पर पुजारी द्वारा फूल व कुछ शगुन के सामान से भरी एक टोकरी रखी गयी, जिसे सफ़ेद कपड़े से पैक किया गया था, जिसे मणिपुरी में लेइचन्दोन (Leichondon) कहते हैं और उस छोटी लड़की को पुबी लेइसबी (Pubi leisabi) कहते है, 
Heijingpot: पुबी लेइसबी (Pubi leisabi)
और फिर उसके पीछे अन्य महिलाओं को अपने सिर पर फिन्गैरुक (Phingairuk) या हेइजिंग खाराई (Heijing Kharai) (बांस से बनी खुबसूरत टोकरियाँ) रख कर चलना था, इन टोकरियों में 7 प्रकार के फल - इन सात फलों में आंवला सबसे महत्वपूर्ण होता है जिसे मणिपुरी में हेइक्रू (Heikru) कहते हैं, इस रस्म में यदि हेइक्रू नही है तो बाकि फलों का कोई औचित्य नहीं होता है और यदि किसी कारण ये फल उपलब्ध नही है तो उसके पेड़ की शाखाएं प्रयोग कि जाती हैं, फलों के अलावा अन्य टोकरियों में मिठाई, चावल, दुल्हन के लिए कपड़े, श्रृंगार का सामान, गहने आदि होते हैं | एक टोकरी में पूर्वजों के देवताओं व एक में स्थानीय देवताओं के लिए फल रखे जाते हैं | ये सारा सामान महिलाएं अपने सर पर लेकर लड़की के घर जाती हैं, अगर घर सामने ही होगा तो पैदल नही तो घर से निकल कर गाड़ी तक सिर में सामान ले जाते हैं फिर लड़की के घर के सामने गाड़ी से उतर कर अपने सिर में रख कर पूजा के मंडप तक लेके जाती हैं |


ये सब देख कर ही मुझे अंदाज़ा लग गया था कि यहाँ की संस्कृति, वैवाहिक रीति-रिवाजों, उनकी रस्मों में महिलाओं का पुरुषों के समान ही योगदान होता है, आज हेइजिंगपोट में जाने के लिए   एक बस केवल महिलाओं से भरी थी, इसके अलावा कुछ और गाड़ियों में भी उनका ही वर्चस्व था, आज मेरा यह पहला अनुभव था जब किसी विवाह कि रस्म में जाने के लिए पुरुषों के मुकाबले महिलाओं कि संख्या दुगनी थी और संख्या को छोड़ दें तो भारत के अन्य राज्यों कि तरह ही यहाँ भी आकर्षण के केंद्र में महिलाएं ही थी, सारी महिलाएं अपनी आकर्षक पारंपरिक वेश-भूषा में थी | यहाँ एक और बात काफी रोचक थी कि वो ये कि सारी महिलाएं एक ही रंग-रूप कि फनेक (Fanek) - कमर से नीचे का वस्त्र और एन्नाफी (ennaphi) -ऊपर से ओढने वाला वस्त्र पहनी थी जोकि सूती या फिर रेशम से खुद के द्वारा घर में तैयार किया गया था और सारे पुरष सफ़ेद रंग का कुर्ता व धोती पहनते थे, इसलिए भास्कर दा ने मुझसे कहा कि वैसे तुम बाहर से आये हो तो आज बिना धोती कुर्ते के जा सकते हो लेकिन अगर तुम को फोटोग्राफी करनी है और मंडप के अन्दर जाना है तो तुम मेरा कुर्ता पजामा पहन लो, वर्ना लोग बुरा मान सकते हैं और भला मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी मैंने भी झट से उनके कुर्ते-पजामे पर हाथ लपक लिया, आखिर दिल्ली से मै उनके कुर्ते पजामे के सहारे ही यहाँ कि शादी में शामिल होने आया था क्योंकि मुझे यहाँ कि शादी में ड्रेस कोड वाली बात पहले से ही मालूम थी |   

घर से निकलने के 20 मिनट बाद ही हम लड़की के घर पहुँच गए थे, घर के आंगन में एक मंडप बना था और मंडप के बीचों-बीच एक गमले में तुलसी का पौधा (मणिपुर के मैतेयी समुदाय में तुलसी का बहुत बड़ा महत्व है, जिसका ब्लॉग में अलग से चर्चा करूँगा) रखा गया था, जिसके चारों ओर बाहरी किनारे पर बैठने कि व्यवस्था थी जहाँ वर पक्ष व कन्या पक्ष के पुरूषों को बैठा दिया गया और वर पक्ष कि महिलाओं के सिर से सामान उतार कर मंडप में रखे गए तुलसी के चारों ओर रख दिया गया |


वर पक्ष कि सभी महिलाओं को मंडप के बाहर पास में ही बने एक ऊँचे स्थान पर बिठा दिया गया, जिसके ठीक विपरीत कन्या पक्ष कि महिलाओं को बैठाया गया था | जब सब चीजें सही स्थान में पहुँच गयी तो स्थानीय पंडित ने पूजा शुरू कि जिसमे वो वर-वधु के कुल देवताओं, पित्रों आदि को निमंत्रित करते हैं और फिर वर-वधु के अभिभावक (यदि लड़के व लड़की के पिता जीवित नही हैं तो उनके घर से कोई सबसे बड़ा आदमी पिता कि जगह पूजा कि सारी रस्में पूर्ण करता है) को मंडप के बीच में पूजा के लिए बुलाया |

जिसमे दोनों ने अपने पूर्वजों, देवताओं को याद करते हुए, फल व चावल भेंट किया और साष्टांग प्रणाम किया, इसके बाद दोनों अभिभावक सबके सामने विवाह करवाने कि औपचारिक घोषणा कि, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि सबके सामने अगले कुछ दिनों में होने वाली शादी को सामाजिक सहमति मिल सके, इसके बाद मंडप में बैठे सभी पुरुषों ने एक दूसरे को आदर भाव प्रदर्शित करते हुए झुक कर प्रणाम किया | फिर पंडित जी सब लोगों को फूल दिया, इसके बाद वधु पक्ष कि और से कुछ लड़कियां सबके लिए लाल चाय लेकर आयी, जिसे पीने के बाद हम सभी लोग वापस घर आ गये |


मेरे लिए विवाह कि इस पहली रस्म “हेइजिंग पोट-औपचारिक सगाई” में कुछ बातें बड़ी गौर करने वाली थी जिसमे सबसे पहली बात ये कि यह पूरी रस्म वर-वधु कि अनुपस्थिति में सम्पन्न होती है, दूसरा यहाँ के लोग अपनी पारंपरिक रस्मों के दौरान किसी भी तरह का शोरगुल पसंद नही करते, वहां मंडप में बैठा कोई भी व्यक्ति आपस में ना तो कोई बात कर रहा था ना ही वहां किसी भी प्रकार का संगीत बज रहा था, ना ही हमारे यहाँ कि तरह डी जे का शोरशराबा था, सब लोग एक दम शांत भाव से बैठकर मंडप कि तरफ नज़रें गढ़ायें बैठे थे, खैर आज कि रस्मों को देख कर मुझे लग गया था कि मुझे आगे कुछ और नए अनुभव प्राप्त होने वाले हैं तो उनके मै भी तैयार हो चूका था, जिनकी चर्चा मै अपने पूर्वोत्तर यात्रा के अगले भाग में करूँगा .......... तब तक आप मेरी पूर्वोत्तर यात्रा को शुरुआत से 4 भागों में पढ़ सकते हैं 1- पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका, 2- पूर्वोत्तर यात्रा: चल पड़ा पूर्वोत्तर कि ओर 3- एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला हुएन लाल्लोंगसे परिचय 4- पूर्वोत्तर यात्रा: मणिपुर में पहला दिन, पौना बाज़ार और हेजिंग्पोट की तैयारियां...... को विस्तार से पढ़ सकते हैं |  और यदि आप मेरी मणिपुर यात्रा के दौरान लिए गए अन्य चित्रों को देखना चाहते हैं तो यहाँ Jewel of India (The Land of Jewels) क्लिक करें |

Tuesday, March 14, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा: मणिपुर में पहला दिन, पौना बाज़ार और हेजिंग्पोट की तैयारियां......

जब हम घर के अन्दर पहुंचे तो अन्दर कुछ युवा मिठाई के डिब्बे तैयार कर रहे थे, ये सारे लोग मेरे लिए नए थे इसलिए भास्कर दा ने सबके साथ मेरा परिचय करवाया | अबुंग कुछ लोगों को लेकर पौना बाज़ार जाने वाला था, मैंने भी जाने का आग्रह किया तो किसी को कोई आपत्ति न हुई, लेकिन अबुंग किसी का इंतजार करने को बोल रहा था और तब तक खाना खाके निपट जाने कि तैयारी में था, मुझे भी भूख लगी थी क्योंकि सुबह से कुछ खाया नही था, लेकिन जैसे ही हम खाना खाने के लिए आगे बढे अबुंग ने कहा तामो (मणिपुरी में बड़े भाई को तामो कहा जाता है) आ गया, तो हम खाना छोड़कर बाज़ार के लिए निकल गए, हम पांच (मै, अबुंग, साना, काइकू और इंदु दीदी) लोग एक मारुती 800 कार में जाके बैठ गए, मै इम्फाल का बाज़ार, यहाँ शाम को लोगों कि दिनचर्या देखने के लिए उत्सुक था, लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद अबुंग ने एक पान कि दुकान के सामने गाड़ी रुकवाते हुए कहा कि जरा इसमें पेट्रोल भरवा देते हैं, आपको भले ही ये पढ के आश्चर्य हो होगा कि पान कि दुकान में क्या कोई पेट्रोल भरवाता है ? लेकिन मुझे थोडा सा भी आश्चर्य नही हुआ क्योंकि मुझे मणिपुर के हालात अच्छे से पता थे और उन दिनों मणिपुर किस स्थिति से गुजर रहा है ये में अच्छे से जानता था, पिछले तीन महीने से देश का मणिपुर राज्य एक उग्रवादी संगठन के द्वारा आर्थिक नाकेबंदी झेल रहा था, यहाँ के सारे पेट्रोल पंप सूखे कुंवे कि तरह हो गये थे और राज्य सरकारें अपनी सत्ता सुख में व्यस्त थी, ताज्जुब तो ये कि केंद्र सरकार भी केवल मीडिया के माध्यम से बयान बाज़ी में लगी थी, मार्च में मणिपुर  में चुनाव होने थे अतः केंद्र सरकार भी इसका राजनीतिक फायद उठाना चाह रही थी, क्योंकि राज्य में विपक्षी सरकार थी, खैर राजनीतिक फायदे के लिए सरकारें किसी भी हद तक जा सकती है, अबुंग जब तेल खरीदने के लिए गाड़ी से उतरा तो मेरा ध्यान दुकान में चिपके एक प्रिंट पर गया जिसमे लिखा था “इलेक्ट्री रिचार्ज यहाँ उपलब्ध” है, मुझे लगा कि शायद यहाँ लाइट कि समस्या रहती होगी तो ये लोग बैट्री से फ़ोन वगैरह  चार्ज करते होंगे लेकिन ये बात मेरे गले नही उतर रही थी तो मैंने साना को पूछ लिया, जब उसको समझ नही आया कि मै क्या जानना चाहता हूँ तो मैंने उसे दुकान कि तरफ इशारा करके पूछा कि वो जो लिखा है इसका मलतब क्या ? तब उसने मुझे धीमे स्वर और धीरे-धीरे हिंदी में बताया कि यहाँ अब घरों में बिजली आपूर्ति पूर्व भुगतान यानि प्री पेड़ के आधार पर कि जाती, आपके खाते में जितने पैंसे होंगे आप उतनी ही बिजली प्रयोग कर सकते हो, मेरे लिए तो ये एकदम नयी और आश्चर्य कि बात थी क्योंकि में जो देश कि राजधानी में रहता हूँ यहाँ अभी तक ऐंसा सिस्टम चालू करने का विचार ही चल रहा है और मणिपुर  में ये लागु भी हो गया है, मैंने साना और अन्य साथियों को मणिपुर में बिजली कि उपलब्धता के बारे में पूछा तो वो बोले जब से सरकार ने प्री पेड सिस्टम किया यहाँ बिजली चोरी काफी हद तक समाप्त हो गई है और बिजली चोरों के ऊपर सख्त कार्रवाई कि जाती है, जिससे यहाँ अब बिजली कि समस्या पहले जैसी नही रही, बाद में इस बात कि पुष्टि एक विद्युत विभाग के एक अधिकारी ने भी कि थी, जिसमे उन्होंने कहा था कि जब से मणिपुर में नयी पीढ़ी सरकारी जॉब में आयी है यहाँ काफी परिवर्तन आया है क्योंकि ये पीढ़ी बाहर से अच्छी शिक्षा लेकर अपने राज्य में कुछ अच्छा काम करने कि कोशिश में लगे हैं, हांलांकि जब आम जानता किसी बात कि पुष्टि कर देती है तो फिर किसी अधिकारी कि जरूरत नही पडती है |

गाड़ी में तेल डलवाने के बाद अबुंग गाड़ी में बैठ गया और हम चले पड़े थे अपनी मंजिल कि ओर...कुछ ही देर में हम उस बाज़ार में पहुँच गए थे जहाँ से हमे मिठाई लेनी थी, गाड़ी से उतरने के बाद हम सीधे उस दुकान कि ओर बढे जहाँ से हमे मिठाई लेनी थी लेकिन दुकान वाले ने हमे निराश कर दिया और कहा कि आपका आर्डर अभी तैयार नही है एक घंटा लगेगा ये सुनकर सच मानिए मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योंकि हम खाना छोड़कर यहाँ आये थे, और ये महाशय हमे और इंतज़ार करवाने वाले थे, अबुंग समझ गया था कि मुझे बहुत जोरो कि भूख लगी है, उसने मुझे कहा भी कुछ खा लो, लेकिन मुझे अकेला कुछ खाना अच्छा नही लगा सो मना कर दिया और फिर घर से निकलते समय मै भास्कर दा को बोल के आया था कि घर लौटकर साथ में खाना खायेंगे, समय काटने के लिए हम थोडा सा बाज़ार में घुमे और वापस उस दुकान में अड्डा जमाकर कर बैठ गए, हांलांकि कि दुकान में अकेला मैं ही हिंदी भाषी नही था वहां बहुत से दिहाड़ी वाले हिंदी भाषी मजदूर थे और दुकानदार खुद भी हिंदी भाषी था, लेकिन मेरा परिचय इन चार मणिपुरियों से था जिनकी मणिपुरी गप्पों के बीच में मै अपने एक हाथ में मोबाइल पर गूगल मेप व दूसरे हाथ से चाय के गिलास कि चुस्कियों में व्यस्त था, काईको और अबुंग को लगा कि शायद मै उनकी मणिपुरी में चल रही बातों से उब रहा हूँ तो वो दोनों बीच-बीच में मुझे हिंदी में समझा देते थे कि वो क्या बात कर रहे हैं या फिर वो हिंदी में बात करने कि कोशिश करते लेकिन मैंने उन्हें कहा कि नही आप लोग मणिपुरी में ही बात कीजिये, मै आपकी बातों को ध्यान से सुन रहा हूँ ताकि मुझे मणिपुरी के कुछ शब्द समझ में आ सके | चाय पीते हुए मैंने अबुंग से पूछ लिया कि हम जिस बाज़ार में बैठे हैं उसे क्या कहते हैं ? वैसे मैं बाज़ार का नाम अपनी गूगल कि करेंट लोकेशन से जान गया था लेकिन सही नाम व उसके उच्चारण के लिए मैंने अबुंग से पूछ लेना उचित समझा | जिस बाज़ार को हमने 10 मिनट में घूम लिया था उसका नाम था पौना बाज़ार और जिस शख्स के नाम से आज ये बाज़ार जाना जाता है उसकी शख्सियत व उनके नाम कि कहानी बड़ी ही रोचक है |

पौना बाज़ार को ये नाम मिला था स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पौना ब्रजबासी के कारण जो 1891 में अंग्रेजों के साथ खोंगजोम के युद्ध में वीर गति को प्राप्त हो गए थे | वे इतने पराक्रमी व युद्ध कुशल ही तो थे कि 58 वर्ष की आयु में मणिपुरी सेना से सेवानिवृत होने के बावजूद भी उनको 1890 में मेजर के पद पर पुनः नियुक्त किया गया था | वो मणिपुरी मार्शल आर्ट (जिसे आज थांग-टा के नाम से भी जाना जाता है) के माहिर थे, तलवार बाज़ी में उनका कोई मुकाबला नही कर सकता था, मणिपुरी सेना में केवल उन्हें ही पंजाब जाकर कुछ अन्य युद्ध कौशल सीखने के लिए भी चुना गया था | 1891 में जब मणिपुर पर अंग्रेजों ने अपना कब्ज़ा ज़माने के लिए म्यांमार कि दिशा से इम्फाल कि ओर बढ़ना शुरू किया तो उनको रोकने के लिए पौना ब्रजबासी के नेतृत्व में मणिपुरी सेना को खोंगजोम भेजा गया जोकि इम्फाल से 36 किमी कि दूरी पर भारत-म्यांमार के रास्ते में है | 23 अप्रैल 1891 को अंग्रेजों के साथ युद्ध शुरू हुआ, तीन दिन तक चले इस युद्ध में पौना ब्रजबासी अपनी सेना के साथ शहीद हो गये | उन शहीदों की याद में प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को खोंगजोम दिवस  मनाया जाता है, इसमें गानों के माध्यम से पौना ब्रजबासी के गौरवशाली इतिहास को प्रस्तुत किया जाता है जिसे खोंगजोम पर्व कहा जाता है |

लेकिन अगर में कहूँ कि जिस शख्स के नाम से लोग आज इस बाज़ार को जानते हैं उनका असली नाम पौना ब्रजबासी नही था तो आप क्या कहेंगे, यही कि फिर उनका असली नाम क्या था ? पोनम नवोल सिंह ! जी हाँ यही था उनका असली नाम, लेकिन वो पौना ब्रजबासी कैंसे हो गये ? दरअसल इसके पीछे भी एक छोटी सी कहानी है, असल में पोनम नवोल सिंह कुछ वर्षों तक वृन्दावन में रहे थे जिस कारण उनके नाम के साथ ब्रजबाशी (बृजवाशी) जुड़ गया था और पोनम को लोग पौना उच्चारित करने लगे, जिस कारण धीरे-धीरे ये पौना ब्रजबासी के नाम से प्रचिलित हो गये, और भारत में तो ये प्रथा है ही कि लोग एक दूसरे को उसके असली नाम से कम अन्य उप नामों से अधिक जानते हैं |

लेकिन मेरे सामने अब सवाल ये है कि जब तक इस बाज़ार का नाम पौना बाज़ार नही पड़ा था तब तक लोग इसे किस नाम से जानते थे ? और कब से इसे इस नाम से जाना जाने लगा ? सवाल कुछ और भी हैं जिनकी चर्चा किसी और भाग में करूँगा, यहाँ मै अपनी पूर्वोत्तर यात्रा पर वापस लौटता हूँ ................

आपको मै ये बताना तो भूल ही गया था कि हम पांच लोग पौना बाज़ार क्यों आये थे, असल में हम अगले दिन होने वाली विवाह कि एक महत्वपूर्ण रस्म हेजिंग्पोट में लड़की के घर ले जाने के लिए मिठाईयां खरीदने के लिए पौना बाज़ार आये थे | मुझे मणिपुर में बड़े-बूढों कि खाना खाने को लेकर कही गयी एक बात जीवनभर के लिये सबक लग रही थी और वो ये बात थी कि कभी भी थाली में रखे खाने को छोड़कर किसी काम के लिए घर से नही निकलना चाहिए वर्ना भूखे रह जाओगे, मेरे साथ उस दिन कुछ ऐंसा ही हुआ, मै खाना आकर खाने कि बात कहकर बाज़ार के लिए निकल गया था और बाज़ार से मिठाई लाने के बाद घर में सब लोग अगले दिन होने वाली विवाह कि रस्म कि तैयारियों में जुट गए थे और कोई भी खाने के लिए पूछ ही नही रहा था, मुझे लगा कि शायद विवाह कि उत्सुकता के कारण इन लोगों को भूख ही नही लग रही थी या ये लोग खाना खा चुके थे, खैर वजह जो भी रही हो पर मै तो भूखा ही था और इस इंतज़ार में था कि कब मुझे खाने के लिए आमंत्रित किया जायेगा, इधर भास्कर दा ने भी मुझे खाने के मामले में धोखा दे दिया था, क्योंकि वो शाम को कहीं बाज़ार से दबाके पकोड़ा खा चुके थे जिस कारण वो खाने के इछुक नही थे, बड़ी देर बाद आखिर हमे भोजन कक्ष में आमंत्रित किया गया | भोजन करने के पश्चात् हम कुछ लोग फिर से अगले दिन कि तैयारियों में जुट गए थे, उस तैयारी के दौरान मुझे एक बात समझ आयी कि मणिपुरी लोग लड़की के घर ले जाने वाले सामान को बड़े सलीके से ले जाते हैं, पहले मिठाइयों को छोटे डिब्बों में रखा गया फिर उनको बड़े डिब्बो में रख कर अच्छे से सजाकर पैक किया जा रहा था | काम कम होने के साथ-साथ लोग भी कम होते जा रहे थे, जिनका घर दूर था वो लोग घर के लिए निकल गए थे | काईको को घर बगल में ही था तो जब तक काम पूरा नही निपट गया वो तब तक वहां रुकी, लगभग रात के 12 बजे तक सारी पैकिंग हो चुकी थी और वो भी जाने कि तैयारी में थी लेकिन मैं तो पहले ही कामचोरी करके अपने सोने के लिए बिस्तर पर कब्ज़ा जमा चूका था | इस तरह मेरा मणिपुर का पहला दिन बिता |

पूर्वोत्तर यात्रा के अगले भाग में मै आपको अब मणिपुरी विवाह कि परम्पराओं रस्मों से रूबरू करवाऊंगा, तब तक आप मेरी पूर्व में लिख गयी पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका, पूर्वोत्तर यात्रा: चल पड़ा पूर्वोत्तर कि ओर व एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला ‘हुएन लाल्लोंग’ से परिचय को विस्तार से पढ़ सकते हैं | तो मिलता हूँ जल्दी ही आपको अपने पूर्वोत्तर यात्रा के भाग भाग के साथ.......|

इम्फाल में 5 दिन का हमारा आशियाना 














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Wednesday, March 8, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा: एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला ‘हुएन लाल्लोंग’ से परिचय

एअरपोर्ट से हमे घर तक ले जाने के लिए अबुंग जोकि मेरे पुराने परिचित हैं व एक बहन आयी थी, एअरपोर्ट से घर जाना और ऑटो बुक करना मुझे युद्ध जैंसा लग रहा था, हांलाकि मै तो साइड में ही खड़ा था लेकिन भास्कर दा, अबुंग, दीदी और और ऑटो वालों कि बातों से तो मुझे यही महसूस हो रहा था, एक तो आज रविवार था, सवारियों का बड़ा अभाव था ऊपर से पेट्रोल-डीजल का संकट जिस कारण ऑटो वाले मुह माँगा दाम मांग रहे थे, हम सब पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाने को तैयार हो गये लेकिन अबुंग अभी आता हूँ बोलकर गायब हो गया और जब लौटा तो एक ऑटो साथ लेकर लौटा, उसे बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा था कि हम यहाँ की बसों में धक्का खाए |

मैं, भास्कर दा और दीदी ऑटो में बैठ गए, अबुंग बाइक लेकर आया था सो वो उसमे चल पड़ा | रास्ते में चलते हुए भास्कर दा ने दीदी से परिचय करवाया, मेरा उनकी छोटी बहन से पहले से थोडा बहुत परिचय था | फिर वो दोनों आपस में बात करने लगे, मुझे नयी जगह में बोलना कम ही पसंद है, इसके बजाय मै सुनना ज्यादा पसंद करता हूँ, अपने इस स्वभाव के कारण में चुप ही था | लेकिन चुप रहने कि एक और वजह थी और वह वजह थी मेरे मन का संशय, एक तो में हिंदी भाषी था ऊपर से शक्ल और सूरत से साफ लगता था कि मै हिंदी भाषी हूँ और मेरे मन में कई सुनी-सुनाई बातें घूम रही थी, मणिपुर के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब यहाँ उग्रवादियों ने हिंदी व हिंदी भाषियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, उस दौरान हिंदी भाषियों को काफी संकटों का सामना करना पड़ा था, उग्रवदियों के हाथों कई लोगों को अपनी जान भी गवानी पड़ी थी, लेकिन केवल हिंदी भाषियों ने ही उग्रवादियों के हाथों अपनी जान गँवाई हो ऐसा भी नहीं था, उग्रवादियों ने कई स्थानीय लोगो को भी मौत के घाट उतार दिया था, इसलिए मै चुप-चाप बैठे रहने में ही भलाई महसूस कर रहा था, लेकिन भास्कर दा तो हिंदी में ही अपनी गप्पे पेले जा रहे थे, एक तो वो पूर्वोत्तर के थे और शक्ल सूरत से मणिपुरी ही लगते थे जबकि वो ठेरे असमिया, वैसे हिंदी में बात करना उनकी भी मजबूरी थी क्योंकि उनको कौन से मणिपुरी आती थी या उन दीदी को ही कौन से असमिया आती थी | अब मणिपुर में काफी संख्या में हिंदी को जानने वाले लोग मिल जायेंगे, जिसके मुझे दो कारण पता चले, पहला हर घर में DTH के माध्यम से हिंदी सिनेमा व नाटकों ने अपनी जगह बनायीं है, दूसरा अच्छे रोजगार, शिक्षा व उपचार के लिए लोगों का मणिपुर से बाहर आना जाना काफी बढ़ा है |

मै भास्कर दा व दीदी की बातचीत को ध्यान से सुन रहा था और अपने कानों को उनकी बातों में घुसा कर बाहर के नज़ारों को ध्यान से देख रहा था, एअरपोर्ट से हमे घर तक लगभग 13 किमी चलना था और पूरे रास्ते में चलते हुए मुझे अजीब सा लग रहा था, सारे पेट्रोल पंप बंद पड़े थे, एक भी दुकान खुली नज़र नही आ रही थी, बस कुछ महिलाएं हर 300-400 मीटर कि दुरी पर 1-2 लीटर कि बोतलों में पेट्रोल भरकर बैठी थीं, मेरा संशय और बढता मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछ ही लिया कि क्या बात है जो रास्ते में हमे एक भी दुकान खुली नज़र नही आयी, सब कुछ बंद क्यों है ? जिसका सामान्य सा जवाब था कि आज रविवार है और रविवार के दिन यहाँ का बाज़ार पूरा बंद रहता है, ये सुनकर मेरे मन में उठ रहे नकारात्मक विचार को विराम मिलना ही था | 

रास्ते में भास्कर दा ने मुझसे पूछा सोचो पूर्वोत्तर से बाहर जब ये पता चले कि एक कल्चरल यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर एक लड़की को घर से भगा के ले गया है तो क्या होगा ? मैंने कहा ये तो हमारे इधर बहुत बदनामी कि बात होगी तो भास्कर दा बोले लेकिन मणिपुर में अगर शादी करनी है तो लड़का-लड़की को घर से भागना पड़ता है, यहाँ अरेंज मैरिज उनकी होती है जिनकी शादी में मुश्किलें आती हैं  या ये कहें कि जिनकी शादी ना हो पा रही हो, फिर भास्कर दा बिशेश्वर दा कि शादी के पीछे की कहानी बताने लगे, ‘एक दिन उनके पास बिशो का फ़ोन आया और बोला भास्कर हम मै तो फंस गया, मैंने जब पूछा कि क्या हुआ तो बिशो बोला मुझे लड़की ने घर से भाग के ले गया है और अब तो शादी करना पड़ेगा | वैसे लड़की और बिशो दोनों एक दूसरे को बच्चपन से जानते हैं और दोनों ही एक दूसरे को पसंद भी करते थे लेकिन घर में शादी को लेकर थोडा इस लिए विरोध था क्योंकि लड़की क्षत्रिय थी और ये ब्राह्मण |

खैर ऑटो से आधे घंटे में हम इरिल्बुंग नदी से सटे अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गए थे जहाँ बिशो (श्री बिसेश्वर शर्मा जी) हमारा इंतज़ार कर रहे थे, भास्कर दा कि कई कोशिशों के बावजूद भी उन्होंने हमे ऑटो का किराया नही देने दिया, उन्होंने मणिपुरी में ऑटो वाले से पता नही क्या कहा कि उसने भी हमसे पैसे लेने से मना कर दिया, हमे व हमारे सामान को अन्दर ले जाया गया, मेरी भटकती नज़रें कमरों कि दीवारों में अपनी मतलब कि चीजें ढूंडने लगी थी, इसी खोज के दौरान मेरी नज़र दीवार में टंगे कुछ चित्रों व एक प्रशस्ति पत्र पड़ी, जिससे मुझे पता चला कि अगले 4-5 दिन हम जिस घर में रुकने वाले हैं ये घर पदमश्री स्वर्गीय श्री गुरुमयूम गोर किशोर शर्मा (गुरूजी) का है और बिशेस्वर जी उनके सबसे छोटे बेटे हैं जिनकी शादी के लिए हम यहाँ आये हैं |

गुरूजी को भारत सरकार ने 2009 में कला क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पदमश्री से नवाज़ा था, गुरूजी ने अपना पूरा जीवन मणिपुर के प्राचीनतम व पारंपरिक मार्शल आर्ट “हुएन लाल्लोंग” (जिसे आज थांग-टा नाम से भी जाना जाता है) के लिए समर्पित कर दिया था, श्री गुरुमयूम गोरकिशोर जी ने थांग-टा के प्रचार-प्रसार व युवाओं को इसकी शिक्षा देने के लिए 25 अक्तूबर 1958 में मणिपुर का पहला शिक्षण केंद्र इरिलबुंग में स्थापित किया, जिसका नाम उन्होंने Huyen Lallong Manipur Thang-Ta Cultural Association रखा | इस संस्थान के माध्यम से न जाने कितने युवाओं ने थांग-टा का प्रशिक्षण प्राप्त किया होगा और न जाने कितने प्रशिक्षित युवाओं ने देश-विदेशों में अपने कौशल का प्रदर्शन किया होगा | 2009 में गुरूजी को पदमश्री मिलने के बाद मणिपुर की सरकार ने भी बच्चों को पढ़ाने के लिए थांग-टा को स्कूल के कोर्स में शामिल कर दिया |

“हुएन लाल्लोंग” मणिपुर की  प्राचीनतम व पारंपरिक युद्ध कला है जोकि आज थांग-टा के नाम से ज्यादा प्रचलित है, लेकिन थांग-टा हुएन लाल्लोंग का एक भाग है जिसका मतलब क्रमश तलवार व भाला होता है और इसमें किसी को शक नही हो सकता है कि युद्ध कि कला “हुएन लाल्लोंग” कि शिक्षा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है | थांग-टा में पौशाकों का उपयोग, हाथों व पैरों कि गति, भाले से युद्ध करना, भाले के साथ खेलना, तलवार से युद्ध करना, तलवार व भाले का युद्ध और ककड़ी को काटने कि कला सिखाई जाती है |


ब्रिटिश राज ने मणिपुरी योधाओं व उनके पराक्रम के भय से 1891 में हुएन लाल्लोंग पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगा दिया था, लेकिन यह गुरूजी जैसे लोगों की अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा व पराक्रम का ही नतीजा था कि युद्ध कि यह प्राचीनतम कला आज भी जीवित है और कई लोगों को आज रोजगार मुहैया करा रही है | 

शेष आगे अंक में .....

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Saturday, March 4, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा: चल पड़ा पूर्वोत्तर कि ओर.........

आखिरकार 5 फरवरी 2017 को वो घडी आ ही गयी जिसका मुझे कई वर्षों से इंतज़ार था, ऐसा नही कि इस यात्रा को स्थगित करने के मेरे पास कोई वजहें न आयी हों लेकिन इस बार मैंने जैंसे भी हो  मणिपुर जाने की ठानी थी | मणिपुर जाने को मन इतना बेताब था कि सुबह जल्दी ही आंख खुल गयी और सारी तैयारियां पूर्ण करने कि बाद भी समय था कि कट नही रहा था, कैब बुक करके समय से पहले ही एअरपोर्ट के लिए निकल पड़ा सोचा वहीँ इंतज़ार कर लूँगा क्योंकि घर में अब बैठे रहना मुश्किल होता जा रहा था | मेरे लिए इंतज़ार करना कितना मुश्किल था ये आपको बयां नही कर सकता केवल इतना कह सकता हूँ कि फ्लाइट 20 मिनट कि देरी से उड़ने वाली थी और मुझे ये 20 मिनट 2 घंटे के बराबर लग रहे थे | दिल्ली से में अकेले ही इम्फाल जाने वाला था भास्कर दा मुझे गुवाहाटी से उसी फ्लाइट में मिलने वाले थे, भास्कर दा का मणिपुर जाना बहुत  बार हुआ है, और पूर्वोत्तर की जानकारी के मामले में उनका कोई सानी नही है अतः मेरी मणिपुर यात्रा के मार्गदर्शक वही थे |

इधर पूर्वोत्तर से दूर उत्तर भारत में जिन लोगों को मेरी पूर्वोत्तर यात्रा कि जानकारी मिली; उन्होंने मुझे अपने अनुभवों, विवेक और ज्ञान के आधार पर कुछ सुझाव दिये, चूँकि में मणिपुर पहली बार जा रहा था तो उसके सन्दर्भ में मेरी भी कुछ जिज्ञासाएं व शंकाएं थी और सुझाव भी वहीँ के ज्यादा थे तो मैंने इन्हें गांठ बांध ली थी | पूर्वोत्तर से दूर जो लोग कभी पूर्वोत्तर आये नही हैं उनके लिए पूर्वोत्तर किसी रहस्यमयी जगह से कम नही है, जहाँ राष्ट्रीय मीडिया ने यहाँ के उग्रवाद, अतिवाद को अपने-अपने माध्यमो में जगह दी और जिस प्रकार यहाँ सरकारी नौकरी के दौरान आयी पोस्टिंग में सरकारी नौकरों ने यहाँ के जादू-टोनो को अपनी गप्पों में जगह दी उससे यहाँ लोग आज भी आने से कतराते हैं | ऐसे गपबाजों से सुनी सुनाई बातों के आधार पर मुझे भी कहा गया था कि एक बार जो पूर्वोत्तर जाता है वहां से वापस नही आता, या फिर जब लोगों को पता चलता था कि मैं पूर्वोत्तर में रहता हूँ तो मुझसे लोग पूछते थे कि हमने सुना है जो वहां एक बार जाता है वो वहाँ से लौटकर नही आता है, क्या ये सच है ? और सच कहूँ तो अब मुझे भी इन बात पर यकीन हो गया है कि जो लोग पहले-पहल पूर्वोत्तर आयेंगे होंगे वो शायद ही वापस लौटे होंगे और अगर वापस गए भी होंगे तो केवल उनका शरीर गया होगा मन-मष्तिस्क पूर्वोत्तर में ही रह गया होगा, यहाँ आने के बाद किसी मुर्ख और रूखे व्यक्ति का ही मन वापस जाने को होता होगा | मै जब भी पूर्वोत्तर आता हूँ मेरा इसके प्रति आकर्षण बढ़ता ही जाता है, यहाँ कि हरयाली, मिट्टी कि खुशबु, रंग-बिरंगी पौशाकें, यहाँ के लोग, भाषा-बोली, संस्कृति, यहाँ कि खूबसूरती, अनायास ही मुझे अपनी और खिंचता रहता है | पूर्व में ऐसे ही थोड़े इस क्षेत्र को कामरूप कहा जाता था है, माँ कामख्या का इस क्षेत्र में विशेष प्रभाव जो है, माँ सती के 51 शक्ति पीठों में से एक सबसे महत्वपूर्ण पीठ पूर्वोत्तर का द्वार कहे जाने वाले असम के गुवाहटी में ही स्थित है जहाँ हर वर्ष कौमार्य कि पूजा होती है |

खैर मेरे शुभचिंतकों में दो प्रकार के लोग थे, मेरे ऐसे शुभचिंतकों ने मुझे होशियार रहने कि सलाह दी जो कभी पूर्वोत्तर आये नही हैं लेकिन राष्ट्रीय मीडिया के माध्यम से पूर्वोत्तर कि थोडा बहुत जानकारी रखते हैं और दुर्भाग्य कि बात यह है कि आज भी राष्ट्रीय मीडिया ने पूर्वोत्तर के प्रति अपना नजरिया नही बदला है, यहाँ कितना कुछ अच्छा हो रहा होगा उसको कभी अपने मीडिया में नही दिखायेंगे लेकिन एक छोटी सी अपराधिक घटना को सारे राष्ट्रीय मीडिया वाले ब्रेकिंग न्यूज़ कि तरह दिखाना शुरू कर देते हैं, एक उदहारण देना चाहता हूँ असम में कई वर्षों से जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल से भी कई गुना बड़ा साहित्य सभा का आयोजन किया जाता है लेकिन कभी भी राष्ट्रीय मीडिया में उसका जिक्र नही हुआ होगा, ये तो केवल एक उदहारण है ऐसे कई और उदारहण यहाँ है जिनको देश का राष्ट्रीय मीडिया नज़रंदाज़ करता रहा है | मेरे लिए ताज्जुब कि बात ये थी कि मेरी मणिपुर जाने कि योजना सुनकर मेरे एक बड़े भाई जैंसे मित्र श्री आशीष भावे जी जो कई वर्षों से पूर्वोत्तर से भलीभांति परिचित हैं और हर मास 2–3 बार पूर्वोत्तर जाते हैं ने मुझे सीधे ही पूछ डाला ऐसे समय में ही तुमने वहां जाने कि ठानी जब मणिपुर संकट कि घडी से गुजर रहा है, वहां लोगों के पास खाने को कुछ नही है, लोग भूखे हैं वहां, तुमको कैसे क्या खिलाएंगे वो लोग ? मैंने भी कह डाला ऐसे समय में ही तो मज़ा है वहां जाने का, वैसे वहां मैं एक विवाह समारोह में जा रहा हूँ तो कोई दिक्कत नही होगी, वो बोले हे राम कैंसे व्यवस्था कर रहे होंगे वो लोग ? दरअसल भावे जी कि चिंता का कारण 1 नवम्बर 2016 को Naga National Council द्वारा मणिपुर के ऊपर थोपी गयी आर्थिक नाकेंबंदी  थी जिस वजह से वहां खाने-पीने, ईंधन, रसोई गैस, दवाइयों व अन्य दैनिक आवश्यक सामान कि कमी हो गई थी,  जिस कारण जो वस्तुयें उपलब्ध थी भी उनकी कीमतें आसमान छूने लगी थी | वैसे मणिपुर के लिए ये कोई नयी बात नही थी, लेकिन इससे उनका दैनिक जीवन काफी असुविधा में था |

जहाज के अन्दर कि ख़ामोशी को तोड़ते हुए फ्लाइट कैप्टिन ने कहा कि जो यात्री जहाज़ के बायीं और बैठे हैं वो खिड़की से हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों को देख सकते हैं, किस्मत से में जहाज के बायीं और ही बैठा था लेकिन खिड़की से दूर तीसरी सीट पर, वैसे मुझे बर्फ से ढकी हिमालय कि चोटियाँ दिखाई दे रही थी लेकिन खिड़की वाली सीट पर न बैठ पाने का मुझे मलाल जरूर हो रहा था | काफी देर तक पहाड़ों को तकने के बाद मै एक बार फिर अपने विचारों में डूब गया, फ्लाइट कैप्टिन की घोषणा ने एक बार फिर सबको बायीं और झाँकने को उत्साहित किया लेकिन बादलों ने सबकी उत्सुकता को ढेर कर दिया और हम विश्व कि सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला माउन्ट एवेरेस्ट को नही देख पाए, जिसका मुझे खिड़की वाली सीट से भी ज्यादा मलाल था | अपनी तीसरी घोषणा में फ्लाइट कैप्टिन ने दिल्ली से 20 मिनट कि देरी से उड़ने के बावजूद समय से गुवाहाटी पहुचने कि बात कही |

जैंसे-जैंसे हमारा विमान लैंडिंग के लिए गुवाहाटी हवाई अड्डे के करीब पहुँच रहा था गुवाहटी के लैंडस्केप और प्राकृतिक छठायें मुझे अपने आप में डुबोती जा रही थी, मेरे इर्द-गिर्द पूर्वोत्तर में मेरी पुरानी यात्रायें घुमने लगी थी, भास्कर दा कि कॉल ने मुझे मेरी इन यात्राओं के जाल से बाहर निकाला, हम गुवाहाटी हवाई अड्डे पर पहुँच चुके थे और दिल्ली से गुवाहटी तक के यात्री विमान से उतरने लगे थे और गुवाहाटी से मणिपुर जाने वाले यात्री अन्दर आने कि प्रतीक्षा में बाहर खड़े थे,  भास्कर दा ने मुझे मेरी सीट नंबर पूछने के लिए फ़ोन किया था, क्योंकि यहाँ से आगे हम दोनों एक ही विमान से मणिपुर जाने वाले थे |

गुवाहटी से 55 मिनट और दिल्ली से लगभग 5 घंटे 15 मिनट कि हवाई यात्रा के बाद विमान अब मणिपुर कि राजधानी इम्फाल के इम्फाल अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने कि तैयारी में था और मैं खिड़की से एकटक इम्फाल के लैंडस्केप को अपने अन्दर उतार रहा था, शायद खिड़की कि ओर मेरी इस एकटक निगाहों से खिड़की कि ओर बैठे यात्रियों को असहज थे लेकिन उनके पास मुझे झेलने के अलावा और कोई चारा भी तो न था | केबिन क्रू स्टाफ ने अपने दैनिक लहजे में हमारा इम्फाल के हवाई अड्डे पर स्वागत किया और आगे कि यात्रा के लिए शुभकामनायें दी, सारे यात्री जल्दी से जल्दी विमान से बाहर निकलने कि कोशिश में लगे थे, अन्दर का नज़ारा उस समय ऐसा था जैंसे किसी बाड़े में बंधी भेड़े बाड़ा खुलने के साथ करती हैं | भास्कर दा कि सीट मेरे से आगे थी इसलिए वो नीचे उतर कर मेरा उतरने का इंतज़ार कर रहे थे, मैं भी जल्द से जल्द मणिपुर कि धरती पर अपना पैर रखना चाहता था | भास्कर दा से मेरी मुलाकत बनारस के बाद सीधे इम्फाल में ही हो रही थी, मेरे नीचे उतरते ही उन्होंने मुझे पूछा कि तुम्हारा वापसी का टिकट कब का है ? मैंने कहा 9 का तो फिर उन्होंने कहा फिर तो ठीक है क्योंकि शादी 7 को नही 8 फरवरी को है |

विमान से उतरने के बाद हम दोनों अपना सामान लगेज काउंटर कि और बढ़ गए, जितनी देरी से विमान दिल्ली से उड़ा था मुझे लगा कि मेरे सामान ने मुझे उससे भी ज्यादा इंतज़ार करवाया होगा, भास्कर दा मेरे से सवा दो घंटे बाद गुवाहाटी से विमान में सवार हुए थे लेकिन उनका सामान मेरे से पहले आ गया तो मुझे खुद के साथ बड़ी न्याय इंसाफी महसूस हो रही थी, साथ ही साथ सोच रहा था कि कहीं विमान कंपनी के कर्मचारी ये न बोल दे कि आपका सामान तो दिल्ली हवाई अड्डे पर ही रह गया है, खैर ऐसा हुआ नही बड़े इंतज़ार के बाद मेरा बैग मेरी तरफ आता दिख रहा था, भास्कर दा अपना सामान लेकर बाहर निकल कर मेरा इंतज़ार कर रहे थे, क्योंकि बाहर कोई उनका वेट कर रहा था जिसको उन्होंने कुछ खाने-पीने का सामान देना था, वो असम के हल्फ्लोंग से योम्चा (एक प्रकार कि सब्जी) लेकर आये थे | जिस बैग में वो खाने-पीने का सामान था उस बैग ने भी हमे खूब इंतज़ार करवाया था, इस इंतजारी कि घड़ी में भास्कर दा बोल पड़े थे “अरे कहीं खाने-पीने का सामान देखकर यहाँ के लोगों ने बैग को अपने पास ही तो नही रख लिया ? यहाँ आजकल खाने-पीने का सामान लाना मुश्किल है लोग उस पर टूट पड़ते हैं” ये सुनकर मुझे आशीष भावे जी कि बात याद आ गयी और मन में संशय बढ़ गया, लेकिन मै भी दृढ संकल्प के साथ दिल्ली से निकला था इसलिए सोचा अब जो होगा देखा जायेगा |

अपना सामान लेकर जब में एअरपोर्ट से बाहर निकला तो मैंने एअरपोर्ट कि और मुड़कर देखा, उसकी सुन्दर बनावट व खूबसूरती ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया, मणिपुर कि राजधानी इम्फाल में 2545 फीट की  ऊंचाई पर स्थित यह छोटा सा हवाई अड्डा कई मायनो में खास है, लोग इसे इम्फाल इंटरनेशनल एअरपोर्ट, तुहिलाल इंटरनेशनल एअरपोर्ट और बीर टिकेन्द्रजित इंटरनेशनल एअरपोर्ट के नाम से भी जानते हैं | यहाँ यात्रियों के लिए सारी आधुनिक सुविधायें मौजूद है और यहाँ से रात में भी विमान को उड़ाने व उतारने कि सुविधा है | गुवाहटी के बाद पूर्वोत्तर का यह सबसे व्यस्त हवाई अड्डा है | यह भारतीय सेना का मिलिट्री बेस भी है और द्वितीय विश्व में भी इस हवाई अड्डे का प्रयोग किया गया था, द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों को इसी हवाई अड्डे से सेना कि आपूर्ति कि गयी थी |




शेष आगे अंक में .....

यात्राओं के दौरान मेरे द्वारा लिए गए चित्रों को आप मेरी फेसबुक प्रोफाइल परिव्राजक नीरज या फिर आप मेरे फेसबुक पेज परिव्राजक फोटोग्राफी पर भी देख सकते हैं |

Thursday, March 2, 2017

पूर्वोत्तर भारत ही क्यों? Why is North East India in my mind ?

पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका ......
पता नहीं क्यों पूर्वोत्तर राज्यों कि यात्रा मेरे लिए हमेशा से ही रोमांचकारी व उत्सुकतापूर्ण रही हैं; शायद एक पहाड़ी को दूसरे पहाड़ियों से आत्मिक आकर्षण ज्यादा रहता हो ? पूर्वोत्तर के लोग, पहाड़ मेरे लिए कभी भी अनजान नहीं रहे, यहाँ आके मुझे घर जैंसा आत्मिक सुख मिलता रहा है | असम, अरुणाचल कि यात्रायें तो मैंने चार साल लगातार कि; यात्रायें क्या बस ये समझिये कि चार साल इन दो राज्यों के बीच ही डोलता रहा; लेकिन इन चार सालों के दौरान कई बार चाहने के बावजदू भी मणिपुर न जा सका | खैर भाग्य से ज्यादा आपको कुछ नहीं मिलता है और घुमक्कड़ी तो भाग्य से ही मिलती है यही सोचकर मैं अपने आपको संतुष्ट कर लेता था, लेकिन यदि आपकी इच्छाएं प्रबल हो तो भाग्य भी आपको रास्ता स्वयं देता है और घुमक्कड़ी के मामले में मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ, मेरी जो मित्र-मण्डली, सगे-संबंधियों कि टोली है उनकी जलन को घुमक्कड़ी के मामले में खुद को भाग्यशाली होने का प्रमाण भी मानता हूँ | लेकिन यहाँ में एक बात जरूर कहूँगा; भाग्य उनका साथ नही देता है जो अपनी इच्छाओं को सुबह उठते ही अपने चेहरे को धोते समय रात दिखे सपनों के साथ धो डालते हैं, बल्कि भाग्य उनको रास्ता देता है जो अपने सपनों, इच्छाओं को हर पल जीते हैं | घुमक्कड़ होना कोई आसान काम नही इसके लिए आपके अन्दर कुछ त्याग करने कि क्षमता होनी चाहिए, केवल पैंसों से आप घुमक्कड़ी का आनंद नही ले पाओगे, पैंसों से आप केवल किसी जगह घूमके आ सकते हो एक सैलानी कि तरह लेकिन आप वहां कि आन्तरिक खूबसूरती व सुख का अनुभव तब तक नही ले पाओगे जब तक आपके अन्दर घुमक्कड़ी के गुण न हो, घुमक्कड़ और सैलानी में कुछ अंतर होते है जिस पर किसी और दिन चर्चा कि जा सकती है | यहाँ केवल पूर्वोत्तर यात्रा की ही चर्चा करता हूँ |

2014 में पूर्वोत्तर से मेरे चार वर्ष के प्रवास के बाद में दिल्ली लौटकर अपनी व्यावसायिक गतिविधियों में डूब चूका था, लेकिन पूर्वोत्तर मुझे अपनी और आकर्षित करता रहा, पूर्वोत्तर जाने का कोई भी मौका मैं अपने हाथ से जाने नही देता हूँ, किसी न किसी बहाने से पूर्वोत्तर कि यात्रा कर ही लेता हूँ और जिसके लिए मुझे भाग्य का पूरा साथ मिलता रहा, पूर्वोत्तर से वापस आने के बाद मुझे एक स्थानीय चित्रकार श्री हेमन्त साहू द्वारा गुवाहटी में एक सामूहिक चित्र प्रदर्शनी में प्रतिभाग करने का अवसर मिला जिसके लिए में वहाँ 7 दिनों तक रहा, वापस दिल्ली आके में अपनी निजी जिंदगी की भागदौड़ में फिर से व्यस्त हो गया | 2015 में एक बार फिर मुझे सामूहिक चित्र प्रदर्शनी के लिए निमंत्रण मिला और मेरा जाना लगभग तय था पर नयी जगह नौकरी के चलते मेरे चित्र तो वहां पहुंचे लेकिन में न पहुँच सका जिसका मुझे आजतक मलाल है |

खैर भाग्य अपना काम करता है और हम अपना, लेकिन घुमक्कड़ी का कीड़ा मुझे बार-बार काटे जा रहा था, दिल्ली में नौकरी से, भीड़ से, यहाँ कि पौन–पौन और स्वार्थों व राजनीतिक संबंधों से मेरा मन उब गया था, कभी-कभी यहाँ खुद को महसूस करना मुश्किल हो रहा था और इस उबासी का विष्फोठ मेरा नौकरी छोड़ने के निर्णय के साथ हुआ | भाग्य मुझे फिर से नया रास्ता दिखा रहा था, लेकिन तब पूर्वोत्तर यात्रा का मेरे मन में कोई विचार नही था, नौकरी छोड़ने के तुरंत बाद मेरी 10 नवम्बर से तुंगनाथ यात्रा कि योजना थी लेकिन में वो यात्रा पूर्ण न कर सका क्योंकि यात्रा शुरू करने से ठीक दो दिन पहले 8 नवम्बर कि रात को देश के प्रधानमंत्री जी ने हज़ार व पांच सौ के नोट अमान्य होने कि घोषणा कर दी थी और मेरी जेब में भी यात्रा के दौरान खर्चे के लिए वही अभागे 1000 व 500 के नोट थे | मै फिर भी देहरादून तक तय कार्यक्रम के अनुसार गया लेकिन सच पूछिए तो मेरी आगे जाने कि हिम्मत न हुई सो वहीँ अड्डा जमा लिया, मेरे आधे से ज्यादा रिश्तेदार तो वहीँ हैं सो मुझे कोई दिक्कत भी नहीं हुई | नोटबंदी से देश को इसके क्या फायदे-नुकसान हुए मुझे ज्यादा पता नहीं लेकिन उस दौरान व्यक्तिगत रूप से मुझे दो फायदे हुए एक ये कि इसकी वजह से में काफी समय अपने परिवार और रिश्तेदारों को दे पाया, दूसरा फायदा ये कि उन दिनों किसी के घर भी खाली हाथ जाना आसान हो गया था, जिसके लिए मोदी जी का धन्यवाद |

लगभग दो सप्ताह देहरादून में काटने के बाद मैं वापस दिल्ली आ गया क्योंकि हमारी कुंवारों कि टीम से हमारे एक और साथी कन्हैया झा जी का विकेट गिर चुका था और 27 नवम्बर 2016 को दिल्ली में रिसेप्शन था फिर 30 नवम्बर को मुझे एक फोटो शूट के लिए ट्रेन से रानीखेत जाना था | 28 कि सुबह मुझे माननीय अमीरचंद जी का कॉल आया और समय निकालके मिलने आने को कहा, उनसे शाम को मिलने का तय हुआ | शाम को उनको खोजते–खोजते मनोज तिवारी जी के घर पहुँच गया, जहाँ पहले से चार-पांच लोग किसी चर्चा में डूबे हुए थे, पहले 10 मिनट तो उनकी बातें मेरे सर के ऊपर से गुजर गयी लेकिन फिर समझ गया कि किसी बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रम कि रूप-रेखा तैयार हो रही है, जिसके लिए समय बहुत कम था, अमीरचन्द जी ने मुझे पूछा कुछ समझे कि क्यों बुलाया, मै भी समझ ही चूका था इसलिए हाँ बोल दिया, हमे 1-2 दिन के अन्दर बनारस जाने का आग्रह किया गया, लेकिन 5-6 तारीख में बनारस जा पाने कि समर्थता जताकर पहले से तय कार्यक्रम के लिए में रानीखेत चला गया | रानीखेत में 2 दिसम्बर कि सुबह तक मेरा फोटोशूट का काम पूरा होने के बाद 3 कि सुबह तक दिल्ली पहुँचने की योजना थी और 5 को बनारस जाने की लेकिन मेरे भाग्य ने तो कुछ और ही तय कर लिया था | 2 दिसम्बर कि सुबह मेरा एक मणिपुरी मित्र मेरे पीछे-पीछे रानीखेत आ पहुंचा, मैंने तो मजाक-मजाक में उसे उत्तराखंड आने का न्योता दिया था वो सच में ही आ पहुंचा, खैर अतिथि देवो भवः कि संस्कृति भी तो अपनी ही है और कौन सा हम किसी वचन से बंधे थे जो काम निपटाके सीधे दिल्ली चले जाते सो मित्र के साथ निकल पड़े नयी डगर पर...... इस यात्रा कि चर्चा अलग से करूँगा क्योंकि यहाँ पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका लिख रहा हूँ | खैर, उत्तराखंड में भटकने के बाद में 9 दिसम्बर कि सुबह दिल्ली आ टपका और 10 दिसम्बर की रात को बनारस के लिए निकल पड़ा, उन दिनों पूरा उत्तर भारत कड़ाके कि ठण्ड झेल रहा था, ट्रेन-फ्लाइट सब देर से चल रहे थे इसलिए मैंने बस से जाना तय किया, बस ने भी अगले दिन 4 घंटे देर से ही हमे बनारस छोडा |

अगले 15-20 दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय हमारा नया ठिकाना था, बस फिर क्या था बनारस पहुंचकर जुट गए अनोखे कार्यक्रम कि तैयारियों में जिसका नाम था राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव, मेरे पूर्व परिचित भास्कर दा वहां पहले से ही मौजूद थे, 25 दिसम्बर तक इस कार्यक्रम के अलावा हमारे पास और कोई विषय नही था, 25 को कार्यक्रम समाप्त होने के साथ ही बीएचयू के परिसर से कार्यक्रम कि खुमारी उतरने लगी तो जो लोग बीएचयू परिसर में 10-15 दिनों से डटे थे उनमे कार्यक्रम कि समाप्ति के साथ ही घर जाने कि होड़ लगी थी, मुझे और भास्कर दा को कुछ काम निपटाके के दिल्ली वापस जाना था इसलिए हम दोनों ही वहां रह गए थे |



भास्कर दा से मेरा पुराना घनिष्ठ परिचय है, वो खुद पूर्वोत्तर के हैं और असम के जयसागर में उनका घर है, उत्सुकता वश मैने उनसे अपनी पूर्वोत्तर यात्रा कि बात कह दी और अपना ध्येय भी उनको बता दिया, फरवरी मास में मेरा पूर्वोत्तर के असम राज्य तक जाने कि योजना थी; 4 फरवरी को लखनऊ से गुवाहाटी का टिकट भी करा लिया था, 11 फरवरी को मेरे एक मित्र का विवाह था जिसमे मुझे जाना था | मेरा असम यात्रा का ध्येय जानकर उन्होंने मुझे मणिपुर जाने का न्योता दे डाला, मणिपुर जाने का मन तो मेरा कब से था लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण दुविधा में था, फिर जल्दी ही दुविधाओं को किनारे करते हुए मैंने मणिपुर जाने कि हामी भर दी, सोचा शायद भाग्य भी मुझे मणिपुर जाने हेतु कहाँ से कहाँ घुमा रहा है, वह खुद ही मेरी मणिपुर यात्रा कि भूमिका तैयार कर रहा था, वहां किसी परिचित का विवाह होने वाला था, ऐसे में मै कैंसे वहाँ जाने का निमंत्रण ठुकरा सकता था, वो कहते हैं कि घुमक्कड़ी कि लिए पैंसे कि जरूरत नही होती जरुरत होती है तो अच्छी किस्मत और दृढ इच्छा शक्ति कि, मुझे मणिपुर जाने का विकल्प मिल गया था और मेरी मणिपुर यात्रा के संयोजक व प्रायोजक भास्कर दा ही थे | उन्होंने भी तुरंत 5 फरवरी का मेरा दिल्ली से सीधे इम्फाल का टिकट बुक कर दिया, अब बस मुझे इंतज़ार था तो 5 फरवरी का ............ |

पिछले कुछ वर्षों से लेखन बंद था इसलिए ब्लॉग में केवल यात्रा के दौरान लिए गए कुछ ही चित्र होंगे हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे अपने यात्रा संस्मरणों को लिख रहा हूँ, जल्दी ही आपको यहाँ पढने को मिलेंगे, लेकिन यात्राओं के दौरान मेरे द्वारा लिए गए चित्रों को आप मेरी फेसबुक प्रोफाइल परिव्राजक नीरज या फिर आप मेरे फेसबुक पेज परिव्राजक फोटोग्राफी पर भी देख सकते हैं |