Friday, March 31, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा : मणिपुर में दूसरा दिन, पीबा ले-लाँगबा (बर बर्टन) और पकोड़ो वाली दावत

 हेइजिंगपोट की रस्म से घर लौट ते वक़्त मेरे मन में एक सवाल घूम रहा था, वो ये कि इतने सारे लोग जो लड़की के घर गए थे वहां तो कुछ खाने को मिला नही तो घर में इन सबका खाना कौन बना रहा होगा ? क्योंकि सुबह से ऐसी कोई व्यवस्था तो दिखी नही, मैंने जिज्ञासा वश पूछ ही  लिया, तो भास्कर दा ने बताया कि यहाँ अन्य राज्यों कि तरह ये सब नही होता लोग अपने घर से खा-पीकर आते हैं और रस्म संपन्न होने के बाद अपने घर वापस चले जाते हैं और जब हम घर पहुंचे तो सभी लोग चाय पीकर अपने-अपने घर लौटने लगते हैं, खैर हम लोग घर के ही मेहमान थे तो हमको अपने भोजन की ज्यादा चिंता नही थी हमारे लिए घर में भोजन तैयार हो रहा था |

आज मुझे पुरी उम्मीद थी कि हमे विशुद्ध मणिपुरी खाना खाने को मिलेगा, लेकिन भोजन बनाते समय हम दो प्राणियों का इतना ध्यान रखा जायेगा ये मुझे पता न था, हम दोनों कितने शुद्ध शाकाहारी हैं ये तो मै नही बताऊंगा लेकिन हाँ भास्कर दा मुझ से ज्यादा शाकाहारी हैं इतना में जरूर कहूँगा लेकिन भोजन के मामले में मै उनसे ज्यादा उदारवादी हूँ, चूँकि भास्कर दा का इस घर में पुराना आना जाना है तो उनकी खाने कि रूचि से घर के सारे लोग परिचित थे, इसलिए भोजन से कुछ दैनिक सामग्री गायब थी जैसे मछली, सामान्यतः मणिपुरी के हर भोजन में सूखी मछली का प्रयोग होता है और यदि घर में किसी कोने में मछली युक्त भोजन बना भी तो वो हमारी थाली से कोसो दूर था, भास्कर दा के लिए मांसाहार केवल पक्षी फल यानि अंडे तक ही सीमित है जोकि पूर्वोत्तर में पूर्वोत्तर के व्यक्ति के प्रति एक रहस्य का विषय भी है |

हमे भोजन के लिए आमंत्रित किया गया, भोजन कक्ष में पहुंचते ही जब मेरी नज़र दो विशिष्ट बड़ी-बड़ी भोजन से परोसी गयी थालियों पर पड़ी तो मै थोडा सकपका गया था, वो इसलिए कि उन दोनों थालियों में भात कि जो मात्रा थी वो मेरे दो दिन के भोजन के लगभग की थी और यदि ये थालियाँ मेरे और भास्कर दा के लिए परोसी गयी है तो फिर तो खा-खा के मर गए आज, लेकिन शुक्र मनाओ कि उन दो थालियों के साथ ही सामान्य आकार कि दो और थालियाँ थी जो हम दोनों के लिए परोसी गयी थी और जो दो बड़ी थालियां थी उनमें चार लोगों के लिए खाना परोसा गया था, मणिपुर में एक बड़ी सी थाली में दो-तीन या चार–पांच लोग एक साथ खाना खाते आराम से देखे जा सकते हैं और जब कोई सामूहिक भोज का आयोजन हो तो ये एक आम बात है | हर संस्कृति में खाना परोसने कि भी अपनी अलग ही कला होती है और खाने कि भी, थाली के बीचों बीच ढेर सारा भात रखा गया था, साथ में एक प्लेट में अलग से कुछ हरे पत्तों से बनी सब्जी थी, दाल थी, आलू कि चटनी थी जिसे बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश में आलू चोखा भी कहा जाता है लेकिन इसे में आलू चटनी कहना ज्यादा उचित सझूंगा क्योंकि यहाँ आलू को सरसों के तेल व खूब सारी लाल मिर्ची के साथ तैयार किया गया था और बहुत ज्यादा तीखा था, मणिपुरी लोग अपने भोजन में लाल मिर्ची का ज्यादा उपयोग करते हैं, भात एकदम शुद्ध जैविक चावलों से बना था जिसकी खुशबु ही गजब कि थी, बिना सूखी मछली के यहाँ के खाने का स्वाद उत्तर भारत से कोई ज्यादा अलग नही लगा मुझे अभी तक जो हमे परोसा गया था उसके आधार पर ही में ये कह रहा हूँ, भोजन से निपटने के बाद मुझे पता चला कि अभी शादी से पहले एक और रस्म बाकि है जो थोड़ी देर में शुरू होगी, जिसको पीबा ले-लाँगबा कहा जाता है, यह रस्म हेइजिंग पोट के ठीक बाद कि रस्म है जो विवाह से पूर्व की जाती है, जिसमे लड़की के घर से कुछ लोग लड़के वालों को विवाह का औपचारिक निमंत्रण देने उसके घर आते हैं | 

रस्म कि तैयारियां पूर्ण हो चुकी थी अब इतजार था तो अतिथियों का, मुझे उम्मीद थी कि शायद लड़की कि फॅमिली से काफी लोग आयेंगे लेकिन वहाँ से केवल एक व्यस्क व्यक्ति एक 5-6 साल के बच्चे के साथ पहुंच थे, बच्चे को देख कर मुझे लगा था कि शायद ये महाशय बच्चे को उसके साथ चलने कि जिद के कारण लेके आए होंगे लेकिन में एकदम गलत था, असल में पीबा ले-लाँगबा कि रस्म में आज उसकी ही अहम् भूमिका थी, इस रस्म में लड़की का छोटा भाई लड़के को अपनी बहन से शादी करने के लिये तय तिथि पर घर आने का औपचारिक निमंत्रण देता है और ये महाशय दुल्हन के छोटे भाई थे | अब वक़्त था रस्म को शुरू करने का, जिस कमरे में रस्म अदा कि जानी थी उसमे बैठने के लिए तीन आसन लगाए गये थे, बिसेश्वर दा (दुल्हा), उनकी माँ और बड़े भाई को उस कमरे में बुलाया गया, कमरे के बीचों बीच जो आसन था उसमे बिसेश्वर दा को बैठाया गया, उनकी दांई ओर उनके तामो यानि बड़े भाई और बाँई ओर उनकी इमा यानि माँ को बिठाया गया, लड़की का भाई केले के पत्तों से बनी छोटी सी कटोरी में कुछ कुंदु यानि चमेली के फूल और तामुल लेकर कर सबसे पहले बिसेश्वर दा (दुल्हे) के पास जाता है, जिसे दुल्हे द्वारा ग्रहण करने का मतलब है कि निमंत्रण को स्वीकार कर लिया गया है, बिसेश्वर दा को भला क्या आपत्ति होनी थी ये तो बस औपचारिकता भर थी शादी कि सारी सेटिंग तो पहले ही हो चुकी थी, उन्होंने भी बच्चे के हाथ से कुछ कुंदु उठाकर अपने कान में खोंस दिया फिर लड़की का भाई उनको तामुल भेंट करता है जिसे वो स्वीकार करके अपने पास रख लेता है, इसके बाद लड़की का भाई बिसेश्वर दा के बड़े भाई व माँ के पास कुंदु व तामुल लेकर जाता है, तीनो का अपने पास तामुल रख लेना का अर्थ है कि सबको तय दिन का निमंत्रण स्वीकार है, वैसे यह केवल औपचारिक रीत है विवाह का दिन दोनों परिवारों कि सहमति से पहले ही तय कर ली जाती है | इस रस्म के आखिर में बिसेश्वर दा के बड़े भाई दुल्हन के भाई को शिष्टाचार के रूप में कुछ पैसे देते है और वो लोग फिर वापस अपने घर लौट जाते हैं | हाँ एक और बात यहाँ भी सारी रस्मों में पंडित कि भूमिका महत्वपूर्ण होती है | 

Click here for more images Jewel of India (The Land of Jewels)

अब आज कि सारी रस्मे पूरी हो चुकी थी अतः अब हम घुमने के लिए आज़ाद थे, मै, भास्कर दा इबोमचा भैया के साथ उनकी कार में घुमने निकल गए, घुमने क्या असल में यहाँ का खास पकोड़ा खाने जिसे यहाँ बरा कहते हैं, भैया को जूते पहनने थे तो वो हमको लेकर सबसे पहले अपने घर गए, घर में घुसते ही हमारी नज़र उन महिलाओं पर पड़ी जो हाथ से चलने वाली मशीन पर कुछ बुनने में व्यस्त थी, मै और भास्कर दा सीधे उनके पास जा पहुंचे और भास्कर दा उनसे कुछ पूछने लगे फिर उन्होंने मुझे बताया कि ये लोग एन्नाफी (ennaphi) – महिलाओं द्वारा ऊपर से ओढे जाने वाला वस्त्र बुन रही हैं जिसे तैयार करने में काफी समय लगता है और ये काफी महंगा भी है, इसे महिलाओं द्वारा किसी खास मौके पर ही पहना जाता है |

Women weaver: weaving Ennaphi.  Click here for more images Jewel of India (The Land of Jewels)
जल्दी ही इबोमचा भैया तैयार होकर बाहर आये और फिर हम चल दिये पकोड़ा खाने | पहले हम थोडा घुमे फिर हम उस दुकान पर जाकर रुक गए जहाँ हमको पकोड़ा खाना था, सड़क किनारे लड़की से एक दुकान बनी थी जिसमे दो महिलाएं काम कर रही थी, वो दोनों इस दुकान कि कर्मचारी भी थी और मालकिन भी, जिस हिसाब से दुकान में भीड़ थी और पूरे इम्फाल में जितनी पकोड़े कि दुकान थी उनको देखकर मैंने भास्कर दा से कह ही दिया कि यहाँ के लोग पकोड़े खाने के बड़े शौक़ीन हैं तो वो बोले कि नीरज तुम ये समझो कि यहाँ कि मिठाई पकोड़ा ही है | इबोमचा जी ने मणिपुरी में उन महिलाओं से दो प्लेट पकोड़े तैयार करने को बोला, पकोड़े बनाने कि प्रक्रिया पूरी तरह उत्तर भारतीय थी लेकिन थोडा इंतज़ार करने के बाद जब दो बड़ी गहरी प्लेटों में हमारे लिए पकोड़े परोसे गए तो मुझे उत्तर भारत व मणिपुर में पकोड़े खाने के तरीकों में फर्क महसूस हो रहा था | पूरी प्लेट सूखी मटर के झोल से भरी थी और प्लेट के बीच में पकोड़े रखे थे जिनके ऊपर कटा प्याज़ व कुछ हरे पत्ते थे जो दिखने में हुबहू लहसुन के छोटे पौधे के आकर के थे और खाने में भी कुछ वैंसा ही स्वाद था लेकिन ये लहसुन के पौधे नही थे ये केवल मणिपुर में ही होता है जोकि कि हर्ब्स कि श्रेणी में आता है, उस पत्ते का नाम तो मुझे ज्यादा देर तक याद नही रहा लेकिन हाँ उन पकोड़ों का स्वाद मुझे काफी देर तक ललचाता रहा | पकोड़ों के साथ लाल चाय पीने का मज़ा ही कुछ और था, में और भास्कर दा एक प्लेट पकोड़ों कि हजम कर चुके थे, वैसे भी भास्कर दा पकोड़ों के बड़े शौक़ीन हैं, इबोमचा जी ने दो और प्लेट का आर्डर दिया और इस बार थोडा दूसरे टाइप का पकोड़ा खाने को मिला, दूसरी बार में मेरा पेट भर चूका था, मै अब और खाने की स्थिति में नही था मेरे बार बार मना करने के बावजूद भी इबोमचा जी ने तीसरी बार दो प्लेट का आर्डर दे दिया, लेकिन मै तो अपने हाथ खड़े कर चुका था, इबोमचा बोले तुम्हारा पेट भर गया तो क्या हमारा भी भर गया ? खैर पकोड़ो कि दावत खत्म होने के साथ ही आज का दिन भी खत्म हो चुका था और इबोमचा अब हमे वापस घर छोड़ने जा रहे थे | 

घर पहुंचे तो बिसेश्वर दा ने बोला कि चलो बाज़ार चलते हैं, मै, भास्कर दा, अबुंग, साना और बिसेश्वर दा स्थानीय बाज़ार में कुछ जरूरी सामान खरीदने चले, चलते –चलते जब पकोड़ों कि दावत का सबको पता चला तो सबका मन पकोड़े खाने का हुआ, मुझे बताया गया कि यहाँ के बाज़ार में थोडा अलग तरह का पकोड़ा मिलता है उसे भी खाकर देखो, मै तो पहले ही ओवरलोडेड हो चुका था इसलिए मना कर दिया लेकिन आप लोग खाइए इतना बोलकर में थोडा किनारे हो गया, भास्कर दा और बिसेश्वर दा अकसर इस दुकान पर पकोड़ा खाने आते थे, इसलिए उनकी जुबान पर यहाँ का स्वाद चढ़ा था, जब हम दुकान के अन्दर घुसे तो मुझे यहाँ भी एक महिला मुख्य भूमिका में नज़र आयी जो इस दुकान के मालकिन से लेकर कर्मचारी सब कुछ थी, बाकि सब लोगों ने पकोड़ों का आनंद ले रहे थे और मै मन ही मन सोच रहा था कि भास्कर ने सही कहा था कि पकोड़ा यहाँ कि मिठाई जैसी है जो हर बाज़ार, हर गली में मिल जाएगी.  घर लौट कर हमने अगले दिन कि प्लानिंग बनायीं कि कल हम क्या करेंगे, मुझे और भास्कर दा को कल कल कुछ लोगों से मिलने जाना था, और कल हम पूरा दिन फ्री थे तो आराम से घूम सकते थे, इसलिए हमने अगले दिन सुबह 9 बजे तक घर से निकलने कि योजना बनाकर आज के दिन कि इति श्री की |

जब तक मै तीसरे दिन कि यात्रा लिखता हूँ तक आप मेरी पूर्वोत्तर यात्रा को शुरुआत से 4 भागों में पढ़ सकते हैं 1- पूर्वोत्तर यात्रा कि भूमिका, 2- पूर्वोत्तर यात्रा: चल पड़ा पूर्वोत्तर कि ओर 3- एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला हुएन लाल्लोंग’ से परिचय 4- पूर्वोत्तर यात्रा: मणिपुर में पहला दिन, पौना बाज़ार और हेजिंग्पोट की तैयारियां...... को विस्तार से पढ़ सकते हैं |  और यदि आप मेरी मणिपुर यात्रा के दौरान लिए गए अन्य चित्रों को देखना चाहते हैं तो यहाँ Jewel of India (The Land of Jewels) क्लिक करें |



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11 comments:

  1. आपकी यात्रा और पकोड़ो के फोटो देखकर मेरा मन भी पूर्वोत्तर जाने को ललचा रहा है।

    अब कब होगी शादी😉😉

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  2. Very good description. Felt as if i am in Manipur as a silent spectator.

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  3. Iit virtually took me to manipur, nice explanation , specially jo aapne wahan k vyanjano k kiya hai

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  4. Iit virtually took me to manipur, nice explanation , specially jo aapne wahan k vyanjano k kiya hai

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  5. हमारे यहाँ में हर बार त्यौहारों में पकोड़े जरूर बनते हैं
    बहुत अच्छी लगी सैर

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  6. रस्म और पकोडोंकी रोचक जानकारी

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  7. हर जगह का खानपान अलग-अलग है, इसलिये उसे परोसने व खाने के तरीके मेम अलग ही बात होती है।

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